Sunday, March 29, 2015

शिव प्रदोष व्रत - 1/4/2015



यह ज्ञानवर्धक आलेख फेसबुक से साभार  लिया गया ही जिसका लिंक भी नीचे दिया जा रहा है --

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शिव प्रदोष व्रत :
पूजा : त्रयोदशी तिथि
समय : संध्या काल ( गोधूली कल )
देवता : भगवान् शंकर

भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमते |
रुद्राय नीलकंठाय शर्वाय शशि मौलिने ||
उग्रयोग्राघनाशाय भीमाय भय हारिने ईशानाय |
नमस्तुभ्यं पशुनाम पतये नमः ||



सृष्टि की प्रत्येक वस्तु प्रकृति के विशेष सनातन नियमानुसार ही क्रियाशील है | प्रत्येक कर्म के साथ उसका फल जुड़ा होता है | परन्तु मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने तक ही सीमित है, फल पर मानव का कोई अधिकार नहीं है | समय आने पर कर्म का फल अवश्य प्राप्त होता है... यही प्रकृति का सनातन नियम है| ऐसा ही एक नियम है व्रत | व्रत से ज्ञानशक्ति, विचारशक्ति, बुद्धि, श्रद्धा, मेधा, भक्ति और पवित्रता की वृद्धि होती है और अंतरात्मा शुद्ध होती है |
प्रदोष व्रत में त्रयोदशी तिथि की शाम को गौरीशंकर की पूजा का अत्यधिक महत्व होता है | यह वह समय होता है जब माँ गौरा और भगवान् शंकर अत्यंत शुभ अनुकूल अवस्था में होते हैं | इस समय भगवान् महादेव से प्रत्येक कार्य में विजय और सफलता की प्राप्ति हेतु और सकल मनोकामनाओं की पूर्ती हेतु प्रार्थना के पूजा की जाती है | इस समय प्रभु माँ गौरी के साथ अत्यंत प्रसन्न अवस्था में होते हैं...अतः इस समय की गयी उनकी पूजा, अर्चना और प्रार्थना अवश्य फलीभूत होती है |


स्कन्द पुराण में इसका विवरण मिलता है कि किस प्रकार शांडिल्य मुनि ने इस व्रत की महिमा एक ब्राह्मण महिला से कही | वह ब्राह्मण स्त्री मुनि के पास दो बालको के साथ आई थी, एक उसका अपना पुत्र, सुचिव्रत, और एक अनाथ राजकुमार, धर्मगुप्त, जिसके पिता की युद्ध भूमि में हत्या कर दी गयी थी और शत्रु पक्ष द्वारा राज्य पर कब्ज़ा कर लिया गया था | मुनि के निर्देशानुसार उस ब्राह्मणी और दोनों बालको ने अत्यंत भक्ति और श्रद्धापूर्वक प्रदोष व्रत आरम्भ किये | जब आठवा प्रदोष था, तो सुचिव्रत को अमृत कलश की प्राप्ति हुयी और धर्मगुप्त को उसका खोया राज्य भी प्राप्त हो गया और वह तीनो सुखपूर्वक निवास करने लगे |
एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य इस व्रत पूजा से सम्बंधित यह है की इस पूजा के समय समस्त देवता अपने अपने सूक्ष्म रूप में आकर उपस्थित होते हैं इस पूजा में... जिस से इसकी महत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है |
शास्त्रों में इस पूजा की महिमा का विस्तृत व्याखान मिलता है | महादेव के मंदिर में प्रभु के यदि केवल दर्शन ही कर लिए जाएँ तो अनेको जन्मो के पाप ताप नष्ट हो जाते हैं और कई गुना सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है | इस अत्यंत दुर्लभ शुभ समय में मात्र एक बिल्वपत्र तक चढ़ाना अनेको महापूजाओ के समान फलदायी होता है | इस समय शिव मंदिर में दीपक प्रज्वलित करने का बहुत अधिक महत्व है | संध्या काल में यदि इस दिन एक भी दीपक प्रज्वलित कर दिया जाय तो यह अनेको पुण्यो को प्रदान करने वाला कहा गया है , जिससे सकल सांसारिक और आध्यात्मिक शुभ फलो की प्राप्ति होती है | इस समय हम प्रभि से सीधा सम्बन्ध जोड़ सकते हैं | अत्यंत भाग्यशाली होते हैं प्रभु के वह भक्त जो इस व्रत को करते हैं... महादेव शीघ्र ही उनके सकल मनोरथो को अवश्य ही पूर्ण करते हैं | सूत जी के कथानुसार इस व्रत से सौ गौदान जितना फल प्राप्त होता है |
प्रदोष पांच प्रकार के होते हैं :
१) नित्य प्रदोष : प्रत्येक दिवस का गोधूली काल (शाम का समय) सूर्यास्त से ३ घटी (७२ मिन.) पहले जब आकाश में तारे दिखने लगते हैं |
२) पक्ष प्रदोष : शुक्ल पक्ष की चतुर्थी का संध्या काल
३) मास प्रदोष : प्रत्येक मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी की संध्या
४) महा प्रदोष : प्रत्येक मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी की संध्या और जिस दिन शनिवार का भी संयोग हो (अर्थात शुक्ल पक्ष का शनि प्रदोष )
५) प्रलय प्रदोष : वह समय जब सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड शिव में विलीन हो शिव से ही एक हो जाता है (अर्थात महाप्रलय काल ) |
त्रयोदशी तिथि एक माह में दो बार पड़ती है | एक शुक्ल पक्ष में और एक कृष्ण पक्ष में | कुछ भक्त जन केवल शुक्ल पक्ष में ही इस व्रत को करते हैं , तो कुछ भक्त जन दोनों पक्षों की त्रयोदशी को | इस तिथि को संध्या समय सभी देव गण कैलाश पर एकत्रित होते हैं और शिव आराधन करते हैं , जिससे साधक को समस्त सुखो और ऐश्वर्यों की प्राप्ति होती है | 

वार के अनुसार यह व्रत विशेष फलदायी कहा गया है :
रवि (अर्क अथवा सूर्य ) प्रदोष - आरोग्य प्राप्ति और आयु वृद्धि
सोम प्रदोष व्रत- मन: शान्ति और सुरक्षा, सकल मनोरथ सफल
भौम (मंगल ) प्रदोष- ऋण मोचन
बुद्ध प्रदोष - सर्व मनोकामना पूर्ण
गुरु प्रदोष - शत्रु विनाशक, पित्र तृप्ति, भक्ति वृद्धि
शुक्र प्रदोष - अभीष्ट सिद्धि, चारो पदार्थो (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) प्राप्ति
शनि प्रदोष- संतान प्राप्ति
शनि प्रदोष व्रत की महिमा अपार है | यह संतान प्राप्ति हेतु संजीवनी का कार्य करता है |
त्रयोदशी तिथि के देवता कामदेव हैं और अगले दिन पड़ने वाली चतुर्थदशी के देवता भगवान् रूद्र (शिव) स्वयं हैं | और कृष्ण पक्ष की चतुर्थदशी को मासिक शिवरात्री होती है | माघ मास की शिवरात्री महाशिवरात्री कहाती है | शिव ने कामदेव को भस्म अवश्य किया था... परन्तु देवादि देव महादेव समस्त कामनाओ को पूर्ण कर प्रत्येक सुख प्रदान करने वाले देव हैं जो अत्यंत शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं | अत: त्रयोदशी और चतुर्थदशी के योग के समय अर्थात त्रोदाशी को संध्या समय जब सूर्यास्त होने को होता है... तब भगवान् शंकर की पूजा का महत्व और भी अधिक हो जाता है |
इस व्रत को प्रत्येक नर नारी कर सकते हैं | जिन नियमो का पालन इन व्रत को करना होता है, वह हैं :
- अहिंसा
- सत्य वाचन
- ब्रह्मचर्य (दैहिक और मानसिक दोनों प्रकार से )
- दया
- क्षमा
- निंदा और इर्ष्या न करना
कुछ भक्त रात्री जागरण करते हैं... तो कुछ भक्त जन यह व्रत निर्जल निराहार रखते हैं... तो कुछ भक्त फलाहार सहित यह व्रत रखते हैं ... अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार | २४, १४ अथवा १२ वर्ष तक इस व्रत को रखने का संकल्प कुछ भक्त जन लेते हैं ... तो कुछ एक वर्ष तक यह पावन व्रत करते हैं... कुछ भक्त केवल ८ प्रदोष रखते हैं... तो कुछ १६ प्रदोष... |
इस दिन व्रती को प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नानादि से निवृत हो शिव मंदिर में
सर्वप्रथम नंदी जी, फिर गणपति, कुमार कार्तिकेय, माँ गौरा की पूजा और नाग पूजन के उपरान्त दीप प्रज्वलित कर पंचामृत ( कच्चा दूध, दही, शहद, देसी घी और शक्कर) से शिवाभिषेक करना चाहिए | भगवान् शिव को अभिषेक अत्यंत प्रिय है | पूजा के समय पवित्र भस्म से स्वयं को पहले त्रिपुंड लगाना अत्यंत शुभ होता है | यदि पवित्र भस्म न उपलभध हो, तो मात्र जल से भी त्रिपुंड धारण किया जा सकता है | अथवा तो धूप से बनी भस्म से भी त्रिपुंड लगाया जाता है | और फिर इसी प्रकार की पूजा शाम के समय, सूर्यास्त से घंटा पहले, पुन: स्नान उपरान्त, की जाती है जिसका महत्व अधिक होता है और शिवालय में दीप प्रज्वलित किये जाते हैं | कुछ भक्त पूजा के समय कलश पूजन भी करते हैं | फिर शिव को अत्यंत प्रिय मृत्युंजय मंत्र की एक माला का जप करने का विधान है इस व्रत में |
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधिम पुष्टि वर्धनम |
उर्वारुकमिव बन्धनात मृत्युर्मुक्षीय माम्रतात ||

फिर प्रभु को भोग लगा कर प्रसाद ग्रहण किया जाता है और भक्त व्रत खोल लेते हैं और रात्री को अन्न ग्रहण कर लेते हैं | परन्तु कुछ भक्त अगले दिन ही अन्न ग्रहण करते हैं |
महादेव शंकर कृपा निधान हैं... अत: उनकी पूजा सेवा से सभी लौकिक, पारलौकिक अथवा आध्यात्मिक मनोवांछित फल प्राप्त किये जा सकते हैं |
*************हर हर महादेव... ॐ नम: शिवाय*************

Sunday, March 8, 2015

सूर्य उपासना का महत्व —-


पं0 दयानन्द शास्त्री
विनायक वास्तु एस्ट्रो शोध संस्थान ,



वैदिक युग से भगवान सूर्य की उपासना का उल्लेख मिलता हैं। ऋग्वेद में सूर्य को स्थावर जंगम की आत्मा कहा जाता हैं। सूर्यात्मा जगत स्तस्थुषश्च ऋग्वेद 1/115 वैदिक युग से अब तक सूर्य को जीवन स्वास्थ्य एवं शक्ति के देवता के रूप में मान्यता हैं। छान्दोग्य उपनिषद में सूर्य को ब्रह्म कहा गया हैं। आदित्यों ब्रह्मेती। पुराणों में द्वादश आदित्यों, सूर्याे की अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें उनका स्थान व महत्व वर्णित हैं। धारणा हैं, सूर्य संबधी कथाओं को सुनकर पाप एवं दुर्गति से मुक्ति प्राप्त होती हैं। एवं मनुष्य का अभ्युत्थान होता हैं।
हमारे ऋषियों ने उदय होते हुए सूर्य को ज्ञान रूप ईश्वर स्वीकारते हुए सूर्योपसना का निर्देश दिया हैं। तेत्तिरीय आरण्यकसूर्य पुराण में भागवत में उदय एवं अस्तगामी सूर्य की उपासना को कल्याणकारी बताया गया हें। प्रश्नोंपनिषद में प्रातःकालीन किरणों को अमृत वर्षी माना गया हैं (विश्वस्ययोनिम) जिसमें संपूर्ण विश्व का सृजन हुआ हैं। वैदिक पुरूष सुक्त में विराट पुरूष सुक्त में विराट पुरूष ब्रहम के नेत्रों से सूर्य की उत्पत्ती का वर्णन हैं।
सूर्य ब्रह्मण्ड की क्रेन्द्रक शक्ति हैं । यह सम्पूर्ण सृष्टि का गतिदाता हैं । जगत को प्रकाश ज्ञान, ऊजा, ऊष्मा एवं जीवन शक्ति प्रदान करने वाला व रोगाणु, कीटाणु (भूत-पिचाश आदि) का नाशक कहा गया है। वैदों एवं पुराणों के साथ-साथ आधुनिक विज्ञान भी इन्ही निष्कर्षो को कहता हैं कि सूर्य मण्डल का केन्द्र व नियन्ता होने के कारण पृथ्वी सौर मण्डल का ही सदस्य हैं । अतः पृथ्वी व पृथ्वीवासी सूर्य द्वारा अवश्य प्रभावीत होते हैं । इस तथ्य को आधुनिक विज्ञान भी मानता हैं तथा ज्योतिष शास्त्र में इसी कारण इसे कालपुरूष की आत्मा एवं नवग्रहों में सम्राट कहा गया हैं ।


भारतीय संस्कृति में सूर्य को मनुष्य के श्रेय एवं प्रेय मार्ग का प्रवर्तक भी माना गया हैं। कहा जाता हैं कि सूर्य की उपासना त्वरित फलवती होती हैं। भगवान राम के पूर्वज सूर्यवंशी महाराज राजधर्म को सूर्य की उपासना से दीर्ध आयु प्राप्त हुई थी। श्रीकृष्ण के पुत्र सांब की सूर्याेपसना से ही कुष्ठ रोग से निवृत्ति हुई, ऐसी कथा प्रसिद्ध हैं। चाक्षुषोपनिषद के नित्य पाठ से नेत्र रोग ठीक होते हैं। हमारे यहां पंच उपासन पद्धतियों का विधान हैं, जिनमें शिव, विष्णु, गणेश सूर्य एवं शक्ति की उपासना की जाती हैं। उपासना विशेष के कारण उपासकों के पांच संप्रदाय प्रसिद्ध हैं। शैव, वैष्णव, गणपत्य एवं शक्ति। वैसे भारतीय संस्कृति एवं धर्म के अनुयायी धार्मिक सामथ्र्य भाव से सभी की पूजा अर्चना करते हैं, किन्तु सूर्य के विशेष उपासक और संप्रदाय के लोग आज भी उड़ीसा में अधिक है।
नवग्रहों में सर्वप्रथम ग्रह सूर्य हैं जिसे पिता के भाव कर्म का स्वामी माना गया हैं । ग्रह देवता के साथ-साथ सृष्टि के जीवनयापन में सूर्य का महत्वपूर्ण योगदान होने से इनकी मान्यता पूरे विश्व में हैं । नेत्र, सिर, दाॅत, नाक, कान, रक्तचाप, अस्थिरोग, नाखून, हृदय पर सूर्य का प्रभाव होता हैं ये तकलीफें व्यक्ति को सूर्य के अनिष्टकारी होने के साथ-साथ तब भी होती हैं जब सूर्य जन्मपत्रिका में प्रथम, द्वितीय, पंचम, सप्तम या अष्टम भाव पर विराजमान रहता हैं । तब व्यक्ति को इसकी शांति उपाय से सूर्य चिकित्सा करनी चाहिये। जिन्हें संतान नहीं होती उन्हें सूर्य साधना से लाभ होता हैं । पिता-पुत्र के संबंधों में विशेष लाभ के लिए सूर्य
साधना पुत्र को करनी चाहिए । यदि कोई सूर्य का जाप मंत्र पाठ प्रति रविवार को 11 बार कर ले तो व्यक्ति यशस्वी होता हैं । प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती हैं । सूर्य की पूजा-उपासना यदि सूर्य के नक्षत्र उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा एवं कृतिका में की जाये तो बहुत लाभ होता हैं । सूर्य के इन नक्षत्रों में ही सूर्य के लिए दान पुण्य करना चाहिए । संक्रांति का दिन सूर्य साधना के लिए सूर्य की प्रसन्नता में दान पुण्य देने के लिए सर्वोत्तम हैं ।
सूर्य की उपासना के लिए कुछ महत्वपूर्ण मंत्र की साधना इस प्रकार से हैंे –
सूर्य मंत्र – ऊँ सूर्याय नमः ।
तंत्रोक्त मंत्र – ऊँ ह्यं हृीं हृौं सः सूर्याय नमः ।
ऊँ जुं सः सूर्याय नमः ।
सूर्य का पौराणिक मंत्र –
जपाकुसुम संकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम ।
तमोडरि सर्वपापघ्नं प्रणतोडस्मि दिवाकरम् ।
सूर्य का वेदोक्त मंत्र-विनियोग –
ऊँ आकृष्णेनेति मंत्रस्य हिरण्यस्तूपऋषि, त्रिष्टुप छनदः
सविता देवता, श्री सूर्य प्रीत्यर्थ जपे विनियोगः ।
मंत्र – ऊँ आ कृष्णेन राजसा वत्र्तमानों निवेशयन्नमृतं मत्र्य च ।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ।
सूर्य गायत्री मंत्र –
1. ऊँ आदित्याय विदमहे प्रभाकराय धीमहितन्नः सूर्य प्रचोदयात् ।
2. ऊँ सप्ततुरंगाय विद्महे सहस्त्रकिरणाय धीमहि तन्नो रविः प्रचोदयात् ।
अर्थ मंत्र – ऊँ एहि सूर्य ! सहस्त्रांशो तेजोराशि जगत्पते ।
करूणाकर में देव गृहाणाध्र्य नमोस्तु ते ।
सूर्य मंत्र ऊँ सूर्याय नमः व्यक्ति चलते-चलते, दवा लेते, खाली समय में कभी भी करता रहे लाभ मिलता है । तंत्रोक्त मंत्रों में से किसी भी एक मंत्र का ग्यारह हजार जाप पूरा करने से सूर्यदेव प्रसन्न होते हैं । नित्य एक माला पौराणिक मंत्र का पाठ करने से यश प्राप्त होता हैं । रोग शांत होते हंै । सूर्य गायत्री मंत्र के पाठ जाप या 24000 मंत्र के पुनश्चरण से आत्मशुद्धि, आत्म-सम्मान, मन की शांति होती हैं । आने वाली विपत्ति टलती हैं, शरीर में नये रोग जन्म लेने से थम जाते हैं । रोग आगे फैलते नहीं, कष्ट शरीर का कम होने लगता हैं। अध्र्य मंत्र से अध्र्य देने पर यश-कीर्ति, पद-प्रतिष्ठा पदोन्नति होती हैं । नित्य स्नान के बाद एक तांबे के लोटे में जल लेकर उसमें थोड़ा सा कुमकुम मिलाकर सूर्य की ओर पूर्व दिशा में देखकर दोनों हाथों में तांबे का वह लोटा लेकर मस्तक तक ऊपर करके सूर्य को देखकर अध्र्य जल चढाना चाहिये । सूर्य की कोई भी पूजा- आराधना उगते हुए सूर्य के समय में बहुत लाभदायक सिद्ध होती हैं ।
जन्मांक में सूर्य द्वारा जातक की आरोग्यता, राज्य, पद, जीवन-शक्ति, कर्म, अधिकार, महत्वाकांक्षा, सामर्थय, वैभव, यश, स्पष्टता, उग्रता, उत्तेजना, सिर, उदर, अस्ति, एवं शरीर रचना, नैत्र, सिर, पिता तथा आत्म ज्ञान आदि का विचार किया जाता हैं । जातक का दिन में जन्म सूर्य द्वारा पिता का तथा रात्रि में जन्म, सूर्य द्वारा चाचा एवं दाए नैत्र का कारक कहा गया हैं। यात्रा प्रभाव व उपासना आदि के विचार में भी सूर्य की भूमिका महत्वपूर्ण हैं । कुछ ज्योतिर्विद सूर्य को उग्र व क्रुर होने के कारण पापग्रह भी मानते हैं । किन्तु कालपुरूष की आत्मा एवं सर्वग्रहों में प्रधान होने के कारण ऐसा मानना तर्कसंगत नहीं हैं । सर्वविदित हैं कि सूर्य की अपने पुत्र शनि से नहीं बनती । इसका भाग्योदय वर्ष 22 हैं ।
सूर्य के अनिष्ट निवारण हेतु उपाय –
1. ढाई किलो गुड़ ले और जिस रविवार को भी सूर्य के नक्षत्रों में से एक भी नक्षत्र पड़े उस दिन सूर्य उदय के समय गुड़ के टुकड़े-टुकड़े करके सूर्य मंत्र का पाठ करके गुड़ को बहाकर सूर्य देव की कृपा प्राप्ति हेतु प्रार्थना करें । ऐसा 9 बार लगातार करना चाहिए । दुर्लभ कार्य भी सफल होते हैं और रोग नियंत्रण में हो जाते हैं ।
2 सूर्य की प्रसन्नता के लिए आदित्य हृदय स्त्रोंत, सूर्य स्त्रोत एवं शिवप्रोक्तं सूर्याष्टकं का नियमानुसार पाठ करना चाहिए ।
3. प्रति रविवार को अग्नि में दूध इतना उबाले की दूध उबलकर अग्नि में गिरे और जलने लगे । अनिष्ट सूर्य की शांति के लिए ऐसा प्रति रविवार को 100 ग्राम दूध अग्नि में होम करना चाहिए ।
4.़ सूर्य नमस्कार नामक व्यायाम प्रातः सूर्योदय के समय करें । विष्णु भगवान का पूजन करें । ग्यारह या इक्किस रविवार तक गणेशजी को लाल फूलों का अर्पण करें । गुलाबी वस्त्र, नारंगी, चन्दन की लकड़ी आदि का दान करें ।
5. रविवार का अथवा शिवजी का व्रत रखें, इस दिन नमक का प्रयोग न करें । व्रत में पूर्ण ब्रम्हचर्य से रहें सत्कार्य करें । शिवपुराण या सूर्य पुराण पढें । पूजा या स्वाध्याय में अधिक से अधिक समय व्यतीत करें । रविवार को गायत्री मंत्र की एक माला कम से कम सूर्योदय से पूर्व शुद्ध होकर जपे और सूर्योदय के समय सूर्यनमस्कार कर, सूर्य को अध्र्य देकर विष्णुसहस्त्र नाम का पाठ करें ।
6 लाल वस्त्र, लाल चन्दन, ताम्र पात्र, केसर, गुड़, गेहूॅ, अनाज, रोटी, सोना व माणिक्य रत्न का दान करे रविवार को प्रातः गाय को गाजर, टमाटर, गाजर का हलवा (लाल रंग का भोज्य पदार्थ) खिलावें ।
7. कहीं भी घर से बहार जावे तो थोड़ा से गुड़ का टुकड़ा मुह में खाते हुए जाए ।