Wednesday, November 6, 2013

आधुनिक समय वास्तु शास्त्र के पुर्नजागरण का समय

आचार्य अनुज जैन

वास्तु जो पंच तत्वों का भारतीय वैदिक विज्ञान है विभिन्न नियम, शोध एवं वस्तु की गुणवत्ता पर आधारित होता है। मानव शरीर,भूमि एवं भवन निर्माण से संबधित विज्ञान है जिसकी नींव हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने रखी थी। उनकी वर्षों की निरंतर तपस्या,शोध एव प्रयोगों का नतीजा ही है कि हमारे मंदिर, पुरातन महल आदि जो वास्तु नियमो पर बने ते। समय के बदलते प्रभाव के बाद आज भी अपनी महत्ता बनाए हुए हैं। आधुनिक समय वास्तु शास्त्र के पुर्नजागरण का समय है। तंत्र आगम, मानसार प्रभावमंजरी,अपराजित पुच्छ, विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र समरागण सूत्रधार, राज वल्लभ-मणडनम, मयमतम आदि वास्तु के ग्रंथ आज भी वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य. का विषय बने हुए हैं। वे यह सोच कर ही हैरान है कि लाखों वर्ष पूर्व किन उपकरण,ज्ञान शोध के उपरातं इतने सटीक नियम प्रतिपादित किए गए हैं जबकि वे तो अभी भी प्रारंभिक अवस्था में ही है। भारत में तो वास्तुकारों को ऋषियों का सम्मान प्राप्त है।

वास्तु यानी भारतीय भवन निर्माण की कला दो उर्जा स्रोत पर आधारित है सूर्य से प्राप्त उर्जा और पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति। इन दोनों ऊर्जा रेखाओं के चयन के पीछे उद्देशय बहुत ही स्पष्ट था। सौर उर्जा और गुरुत्वाकर्षण के प्राकृतिक सामंजस्य प्रयोग और परिवर्तन के द्वारा सही दिशाओं का पता लगाना ताकि ऊर्जा के सही बहाव की जानकारी प्राप्त हो सके। भू ऊर्जा जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है और प्राणिक ऊर्जा जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है उसका उपयोग भवन में किस प्रकार हो, कैसे शरीर, कर्म और वातावरण का संतुलन बनाया जाए इसकी जानकारी वास्तु शास्त्र में हजारों वर्षों से हमारे पास है। वास्तु शास्तर इस बात पर आधारित है कि प्रकृति में पांच महाभूतों ( पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु) आदि में ऐसा संतुलन कायम किया जाए जिससे बनाए गए भवन में सुख समृद्धि हो, और व्यक्ति अपने जीवन उद्देश्य को प्राप्त करे।

वास्तु के मूलभूत सिद्दांतों में सर्वप्रथम आता है भूमि परिक्षण। भूमि परिक्षण के जो विभिन्न सूत्र वास्तु शास्त्रों में बताए गए हैं वे आज भी वैज्ञानिक कसौटियों पर खरे उतरते हैं वास्तु में प्रतिपादित भूमि की गंध, स्वाद, रंग, स्पर्श आदि की परिक्षण विधियां वैज्ञानिक विश्लेषणों को मात भी दे रहा है । भूमि पर मकान बनाने से पूर्व, चुनाव की अगली विधि होती है भूमि का आकार। वर्गाकार आयातकार, वृत्ताकार, त्रिकोणकार,अण्डाकार, सिंहमुखी, गोमी आदि, शुभ अशुभ इस प्रकार की भूमि के चयन का नियम वास्तु शास्त्र में प्रतिपादित है जो वहां रहने वाले व्यक्ति पर शुभ- अशुभ असर डालते हैं। आज विज्ञान ने भी आकार के महत्व को समझ लिया है और बड़े-बड़े आकार परियोजनाएं ही बनाए जा रहे हैं।

भूमि का चारो दिशाओ की ओर से ऊंचा नीचा होना भी वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार भवन और भवन स्वामी पर व्यापक प्रभाव डालता है। आज फ्रांस जर्मनी, अमेरिका में बायो बायलॉजी के नियम भी इन सूत्रों को अपना रहे हैं उनके द्वारा 25 सूत्री नियमावली में भूमि के स्तर को सौर ऊर्जा के परिवर्तन के साथ जोडा़ जा रहा है ताकि सौर ऊर्जा और गुरुत्वाकर्षण का संपूर्ण उपयोग किया जा सके।

वास्तु शास्त्र में दिशाओं का बहुत ही बड़ा महत्व होता है वास्तु शास्त्र के अनुसार आठ दिशाएं न केवल पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति और अदृश्य उर्जा रेखाओं का प्रतिनिधित्व करती है बल्कि पंच तत्वों का केन्द्र भी है जैसे उत्तर दिशा में पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से चुंबकीय शक्ति निकलती है। अतः भवन के इस चुंबकीय क्षेत्र में खुला बरामदा रखने, भूमि एवं भवन का स्तर नीचा रखना बताया गया है। भू वैज्ञानिक भी इस सिद्धांत पर सहमति जताते है कि इस प्रकार की संरचना से भूमि और भवन के वाष्प स्तर को नियंत्रित किया जा सकता है।

वास्तु शास्त्र में भवन की बनावट,भव्यता, आकार और उपयोग के अनुसार 32 प्रकार के वास्तु पद मण्डल का विधान है। इस प्रकार हम सरलता से ऊर्जा के केन्द्र माप सकते हैं जिन्हे हम ब्रहम स्थान, मर्मस्थान, अथि मर्मस्थान पर देख सकते हैं जिस प्रकार मानव शरीर में ऊर्जा के सात स्रोत होते हैं जिन्हें हम चक्र कहते हैं उसी प्रकार भूमि और भवन में भी ऊर्जा के सातों चक्र होते हैं जिन्हे हम तीन विभागों में विभाजित कर सकते हैं- उत्तर-पूर्व,मध्यस्थान एवं दक्षिण-पश्चिम। उत्तर-पूर्व में आकाशीय ऊर्जा विद्यमान रहती है,  मध्य भाग में ब्रहमाणीय उर्जा विराजमान रहती है और दक्षिण-पश्चिम में पृथ्वी ऊर्जा का वास होता है। वास्तु शास्त्र का पूरा आधार इन्ही तीनों ऊर्जा रेखाओं पर रखा हुआ है।

वास्तु प्राचीन समय का भवन निर्माण का विज्ञान है जो आज भी अपने तर्क शोध और सत्यता के बल पर अपना महत्व बनाए हुए है आधुनिक जीवन शैली प्रदूषण, प्रतिस्पर्धा और गलत रहन सहन के कराण हमें या तो स्वयं को बदलना होगा या वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक सूत्रों को लागू करने की शैली विकसित करनी होगी। जब हम ज्ञान और विज्ञान को पुनः मिलाएंगे तो हम एक बार फिर सुख शांति समृद्धि का जीवन जी पाएंगे।