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AN ARTICLE BY TAPAN SENGUPTA ON FACE BOOK
मृत्यु के समय आत्मा शरीर के द्वारों से निकलती है .ये द्वार है--> दो आँख ,दो कान ,दो नासिका छिद्र ,दो निचे के द्वार ,एक मुंह और दसवा द्वार है सहस्रार चक्र .इसी स्थान पर शिखा होती है .
जब प्राण इस द्वार से निकले तो मुक्ति निश्चित है . शिखा रखने से इस स्थान से ही प्राण निकलते है .शिखा रखने से मनुष्य सभी योगिक क्रियाओं को ठीक ठीक कर सकता है . इससे उसकी नेत्र ज्योति बढती है और शरीर ठीक ढंग से कार्य करता है .शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए . यही आकार सहस्रार चक्र का है . इस पर शिखा का हल्का सा दबाव होने से यह जागृत हो जाता है और मस्तिष्क में रक्त प्रवाह ठीक रहता है .इससे शरीर , बुद्धि और मन नियंत्रण में रहता है .
मानव उत्क्रांति का सर्वोच्च पड़ाव आत्म साक्षात्कार है। यह साक्षात्कार सुषुम्ना के माध्यम से होता है। सुषुम्ना नाड़ी अपान मार्ग से होती हुई मस्तक के जरिए ब्रह्मरंध्र में विलीन हो जाती है। ब्रह्मरंध्र ज्ञान, क्रिया और इच्छा इन तीनों शक्तियों की त्रिवेणी है। मस्तक के अन्य भागों की अपेक्षा ब्रह्मंध्र को अधिक ठंडापन स्पर्श करता है। इसलिए उतने भाग में केश होना बहुत आवश्यक है। बाहर ठंडी हवा होने पर भी यही केशराशि ब्रह्मरंध्र में पर्याप्त ऊष्णता बनाए रखती है।
यजुर्वेद में शिखा को इंद्रयोनि कहा गया है। कर्म, ज्ञान और इच्छा प्रवर्तक ऊर्जा, ब्रह्मरंध्र के माध्यम से इंद्रियों को प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में शिखा मनुष्य का एंटेना है। जिस तरह दूरदर्शन या आकाशवाणी में प्रक्षेपित तरंगों को पकडऩे के लिए एंटेना का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मांडीय ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए शिखा का प्रयोग करते हैं।
धार्मिक अनुष्ठान के समय शिखा को गांठ मारनी चाहिए। इसका कारण है कि गांठ मारने से मंत्र स्पंदनों के जरिए उत्पन्न होने वाली ऊर्जा शरीर में एकत्रित होती है। अन्य मर्म स्थानों की अपेक्षा ब्रह्मरंध्र अति महत्वपूर्ण और कोमल है। शिखा ग्रंथि में चामुंडा देवी का अधिष्ठान माना गया है। चामुंडा ध्वनि और प्रदूषण रोकती हैं। अत: 'तिष्ठ देवि शिखा बंधे' प्रार्थना उनके लिए की जाती है।
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मृत्यु के समय आत्मा शरीर के द्वारों से निकलती है .ये द्वार है--> दो आँख ,दो कान ,दो नासिका छिद्र ,दो निचे के द्वार ,एक मुंह और दसवा द्वार है सहस्रार चक्र .इसी स्थान पर शिखा होती है .
जब प्राण इस द्वार से निकले तो मुक्ति निश्चित है . शिखा रखने से इस स्थान से ही प्राण निकलते है .शिखा रखने से मनुष्य सभी योगिक क्रियाओं को ठीक ठीक कर सकता है . इससे उसकी नेत्र ज्योति बढती है और शरीर ठीक ढंग से कार्य करता है .शिखा का आकार गाय के पैर के खुर के बराबर होना चाहिए . यही आकार सहस्रार चक्र का है . इस पर शिखा का हल्का सा दबाव होने से यह जागृत हो जाता है और मस्तिष्क में रक्त प्रवाह ठीक रहता है .इससे शरीर , बुद्धि और मन नियंत्रण में रहता है .
मानव उत्क्रांति का सर्वोच्च पड़ाव आत्म साक्षात्कार है। यह साक्षात्कार सुषुम्ना के माध्यम से होता है। सुषुम्ना नाड़ी अपान मार्ग से होती हुई मस्तक के जरिए ब्रह्मरंध्र में विलीन हो जाती है। ब्रह्मरंध्र ज्ञान, क्रिया और इच्छा इन तीनों शक्तियों की त्रिवेणी है। मस्तक के अन्य भागों की अपेक्षा ब्रह्मंध्र को अधिक ठंडापन स्पर्श करता है। इसलिए उतने भाग में केश होना बहुत आवश्यक है। बाहर ठंडी हवा होने पर भी यही केशराशि ब्रह्मरंध्र में पर्याप्त ऊष्णता बनाए रखती है।
यजुर्वेद में शिखा को इंद्रयोनि कहा गया है। कर्म, ज्ञान और इच्छा प्रवर्तक ऊर्जा, ब्रह्मरंध्र के माध्यम से इंद्रियों को प्राप्त होती है। दूसरे शब्दों में शिखा मनुष्य का एंटेना है। जिस तरह दूरदर्शन या आकाशवाणी में प्रक्षेपित तरंगों को पकडऩे के लिए एंटेना का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मांडीय ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए शिखा का प्रयोग करते हैं।
धार्मिक अनुष्ठान के समय शिखा को गांठ मारनी चाहिए। इसका कारण है कि गांठ मारने से मंत्र स्पंदनों के जरिए उत्पन्न होने वाली ऊर्जा शरीर में एकत्रित होती है। अन्य मर्म स्थानों की अपेक्षा ब्रह्मरंध्र अति महत्वपूर्ण और कोमल है। शिखा ग्रंथि में चामुंडा देवी का अधिष्ठान माना गया है। चामुंडा ध्वनि और प्रदूषण रोकती हैं। अत: 'तिष्ठ देवि शिखा बंधे' प्रार्थना उनके लिए की जाती है।
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