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भगवान शंकर के अर्धनारीश्वर अवतार में हम देखते हैं कि भगवान शंकर का आधा शरीर स्त्री का तथा आधा शरीर पुरुष का है। यह अवतार महिला व पुरुष दोनों की समानता का संदेश देता है। समाज, परिवार व सृष्टि के संचालन में पुरुष की भूमिका जितनी महत्वपूर्ण है उतना ही स्त्री की भी है।स्त्री तथा पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के बिना इनका जीवन निरर्थक है। अर्धनारीश्वर लेकर भगवान ने यह संदेश दिया है कि समाज तथा परिवार में महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही आदर व प्रतिष्ठा मिले। उनके साथ किसी प्रकार का भेद-भाव न किया जाए।
शिवपुराण के अनुसार सृष्टि में प्रजा की वृद्धि न होने पर ब्रह्मा चिंतित हो उठे। तभी आकाशवाणी हुई- ब्रह्मन! मैथुनी सृष्टि उत्पन्न कीजिए। यह सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि उत्पन्न करने का संकल्प किया। परंतु तब तक शिव से नारियों का कुल उत्पन्न नहीं हुआ था। तब ब्रह्मा ने शक्ति के साथ शिव को संतुष्ट करने के लिए तपस्या की ।
ब्रह्मा की तपस्या से परमात्मा शिव संतुष्ट हो अर्धनारीश्वर का रूप धारण कर उनके समीप गए। शिव ने प्रसन्न होकर कहा- पितामह! मैं आपकी अभिलाषा जानता हूं । जगत कल्याण के लिए मैं आपके मनोरथ पूर्ण कर रहा हूं। ऐसा कहकर शिव ने अपने शरीर में स्थित देवी शिवा/शक्ति के अंश को पृथक कर दिया। ब्रह्मा ने उस परम शक्ति की स्तुति की और कहा- माता। मैं मैथुनी सृष्टि उत्पन्न कर अपनी प्रजा की वृद्धि करना चाहता हूं अत: आप मुझे नारीकुल की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें।
ब्रह्माजी की प्रार्थना स्वीकार कर देवी शिवा ने उन्हें स्त्री-सर्ग-शक्ति प्रदान की और अपनी भृकुटि के मध्य से अपने ही समान कांति वाली एक शक्ति की सृष्टिï की जिसने दक्ष के घर उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया। शक्ति का यह अवतार आंशिक कहा गया है। शक्ति पुन: शिव के शरीर में प्रविष्ट हो गई। उसी समय से मैथुनी सृष्टि का प्रारंभ हुआ। तभी से बराबर प्रजा की वृद्धि होने लगी। सावन भगवान शिव की भक्ति का महीना है। इस महीने में विभिन्न साधनों से भगवान शंकर को प्रसन्न किया जाता है। सावन के महीने में भगवान शंकर के जलाभिषेक का भी विशेष महत्व है। जलाभिषेक से शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों की मनोकामना पूरी करते हैं।
कांवड़ यात्रा का एक महत्व यह भी है कि यह हमारे व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती है।
लंबी कांवड़ यात्रा से हमारे मन में संकल्प शक्ति और आत्म विश्वास जागता है। हम अपनी क्षमताओं को पहचान सकते हैं, अपनी शक्ति का अनुमान भी लगा सकते हैं। एक तरह से कांवड़ यात्रा शिव भक्ति का एक रास्ता तो है ही साथ ही यह हमारे व्यक्तिगत विकास में भी सहायक है। यही वजह है कि श्रावण में लाखों श्रद्धालु कांवड़ में पवित्र जल लेकर एक स्थान से लेकर दूसरे स्थान जाकर शिवलिंगों का जलाभिषेक करते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब सारे देवता श्रावण मास में शयन करते हैं तो भोलेनाथ का अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य जागृत हो जाता है। कांवड़ का जल केवल 12 ज्योर्तिलिंगों और स्वयंभू शिवलिंगों ( जो स्वयं प्रकट हुए हैं) पर ही चढ़ाया जाता है। प्राण प्रतिष्ठित मूर्तियों और शिवलिंगों पर कांवड़ का जल नहीं चढ़ाया जाता।
हिन्दू धर्म के अनुसार श्रावण मास त्रिदेव और पंच देवों में प्रधान भगवान शिव की भक्ति को समर्पित है। पौराणिक मान्यता है कि देव-दानव द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए। मान्यता है कि भगवान शंकर ने विष पान से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया। यह भी धार्मिक मान्यता है कि इस विष के प्रभाव को शांत करने के लिए भगवान शंकर ने गंगा को अपनी जटाओं में स्थान दिया। इसी धारणा को आगे बढ़ाते हुए भगवान शंकराचार्य ने ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम पर गंगा जल चढ़ाकर जगत को शिव के जलाभिषेक का महत्व बताया। शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान श्रावण मास में ही किया था। धार्मिक दृष्टि से यही कारण है कि इस मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। यह काल शिव भक्ति का पुण्य काल माना जाता है। शिव भक्तों द्वारा पूरी श्रद्धा, भक्ति और आस्था के साथ भगवान शिव की पूजा-अर्चना, अभिषेक, जलाभिषेक, बिल्वपत्र सहित अनेक प्रकार से की जाती है। इस काल में शिव की उपासना भौतिक सुखों को देने वाली होती है। व्यावहारिक रुप से देखें तो भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस बात का प्रतीक है कि मानव को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं और व्यावहारिक जीवन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का सदुपयोग करे। शंकर की जटाओं में विराजित गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और विवेक का। गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी स्थान पर रखा है जहां मानव का भी विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।
हिन्दू धर्म में माना जाता है कि भगवान शिव इस पूरे जगत का संचालन करते हैं और संहार भी। यही कारण है कि धर्म शास्त्रों में श्रावण मास में भगवान शिव की आराधना का शेष मासों की तुलना में अधिक महत्व है। शास्त्रों में श्रावण मास के महत्व को बताने वाली अनेक धार्मिक प्रसंग हैं। इनमें अमरनाथ तीर्थ में भगवान शंकर द्वारा माता पार्वती को सुनाई अमरत्व की कहानी का सबसे अधिक धार्मिक महत्व है। पौराणिक मान्यता है कि भगवान शंकर ने अमरत्व का रहस्य बताने के लिए कहानी माता पार्वती को एकांत में सुनाई। कहानी सुनने के दौरान माता पार्वती को नींद आ गई। किंतु उस कहानी को उस स्थान पर मौजूद शुक यानि तोते ने सुन लिया। कहानी सुनकर शुक अमर हो गया। इसी शुक ने भगवान शंकर के कोप से बचकर बाद में शुकदेव जी के रुप में जन्म लिया। इसके बाद नैमिषारण्य क्षेत्र में शुकदेव जी ने यह अमर कथा भक्तों को सुनाई। मान्यता है कि यही पर भगवान शंकर ने ब्रह्मा और विष्णु के सामने शाप दिया कि आने वाले युग में अमर कथा को सुनने वाले अमर नहीं होंगे। किंतु यह कथा सुनकर पूर्व जन्म और इस जन्म में किए पाप और दोषों से मुक्त हो जाएंगे। उन भक्तों को शिवलोक मिलेगा। खास तौर पर सावन के माह में इस अमर कथा का पाठ करने या सुनने वाला जनम-मरण के बंधन से छूट जाएगा। दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार मरकंडू ऋषि के पुत्र मारकण्डेय ने लंबी उम्र के लिए शिव की प्रसन्नता के लिए श्रावण मास में कठिन तप किया। जिसके प्रभाव से मृत्यु के देवता यमराज भी पराजित हो गए। यही कारण है कि श्रावण मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। इस मास में शंकर जी की यथोपचार पूजा, अमर कथा का पाठ करना या सुनने पर लौकिक कष्टों जिनमें पारिवारिक कलह, अशांति, आर्थिक हानि और कालसर्प योग से आने वाली बाधाओं से मुक्ति मिलती है। इस प्रकार श्रावण मास में शिव पूजा से ग्रह बाधाओं और परेशानियों का अंत होता है।
शिवलिंग पूजा मन से कलह को मिटाकर जीवन में हर सुख और खुशियाँ देने वाली मानी गई है। हर देव पूजा के समान शिवलिंग पूजा में भी श्रद्धा और आस्था महत्व रखती है। किंतु इसके साथ शास्त्रोंक्त नियम-विधान अनुसार शिवलिंग पूजा शुभ फल देने वाली मानी गई है। इन नियमों में एक है शिवलिंग पूजा के समय भक्त का बैठने की दिशा। जानते हैं शिवलिंग पूजा के समय किस दिशा और स्थान पर बैठना कामनाओं को पूरा करने की दृष्टि से विशेष फलदायी है। जहां शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्व दिशा की ओर चेहरा करके नहीं बैठना चाहिये। क्योंकि यह दिशा भगवान शिव के आगे या सामने होती है और धार्मिक दृष्टि से देव मूर्ति या प्रतिमा का सामना या रोक ठीक नहीं होती। शिवलिंग से उत्तर दिशा में भी न बैठे। क्योंकि इस दिशा में भगवान शंकर का बायां अंग माना जाता है, जो शक्तिरुपा देवी उमा का स्थान है। पूजा के दौरान शिवलिंग से पश्चिम दिशा की ओर नहीं बैठना चाहिए। क्योंकि वह भगवान शंकर की पीठ मानी जाती है। इसलिए पीछे से देवपूजा करना शुभ फल नहीं देती। इस प्रकार एक दिशा बचती है – वह है दक्षिण दिशा। इस दिशा में बैठकर पूजा फल और इच्छापूर्ति की दृष्टि से श्रेष्ठ मानी जाती है। सरल अर्थ में शिवलिंग के दक्षिण दिशा की ओर बैठकर यानि उत्तर दिशा की ओर मुंह कर पूजा और अभिषेक शीघ्र फल देने वाला माना गया है। इसलिए उज्जैन के दक्षिणामुखी महाकाल और अन्य दक्षिणमुखी शिवलिंग पूजा का बहुत धार्मिक महत्व है। शिवलिंग पूजा में सही दिशा में बैठक के साथ ही भक्त को भस्म का त्रिपुण्ड़् लगाना, रुद्राक्ष की माला पहनना और बिल्वपत्र अवश्य चढ़ाना चाहिए। अगर भस्म उपलब्ध न हो तो मिट्टी से भी मस्तक पर त्रिपुण्ड्र लगाने का विधान शास्त्रों में बताया गया है।
सनातन धर्म में भगवान शिव को सभी देवी-देवताओं में सबसे श्रेष्ठ माना गया है। इसलिए उनको महादेव भी कहा जाता है। महादेव थोड़ी-सी भक्ति पर ही भक्त पर कृपा कर देते हैं। भक्त और भक्ति के महत्व का एहसास शिव भक्ति से ही संभव है। यही कारण है शिव की भक्ति देवता से लेकर दानवों तक ने की। भगवान शिव भी उनकी भक्ति से ऐसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने मुक्त भाव से सभी को मनचाहे वर दिए और कामना पूरी की। इसलिए भगवान शिव को भोलेनाथ भी कहा जाता है।
भगवान शिव के ऐसे ही गुणों के पुराण प्रसंगों से जुड़े अनेक पौराणिक और धार्मिक स्थल हैं। इनमें से ही एक है – शिव खोड़ी की गुफा। यह जम्मू कश्मीर के रनसू क्षेत्र में स्थित है। धार्मिक आस्था है कि इस गुफा में रखी भगवान शिव की पिण्डियों के दर्शन से हर कामना पूरी हो जाती है।
माना जाता है कि यह गुफा स्वयं भगवान शंकर ने बनाई है। पुराण कथा यह है कि भस्मासुर ने तप कर शंकर को प्रसन्न किया। तब भस्मासुर ने शिव से यह वर पाया कि वह जिसके सिर पर हाथ रखे वह भस्म हो जाए। वर मिलते ही भस्मासुर, भगवान शंकर पर ही हाथ रखने के लिए आगे बढ़ा। इस पर भगवान शंकर और भस्मासुर में युद्ध हुआ। इसी कारण इस क्षेत्र का नाम रणसु या रनसु हुआ। भस्मासुर ने हार नहीं मानी। तब भगवान शंकर वहां से निकलकर ऊंची पहाड़ी पहुंचे और एक गुफा बनाकर उसमें छुपे। यही शिव खोड़ी की गुफा के नाम से प्रसिद्ध है। माना जाता है कि भगवान शंकर को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने बहुत ही सुंदर स्त्री का रुप लेकर भस्मासुर को मोहित किया। सुंदरी रुप विष्णु के साथ नृत्य के दौरान भस्मासुर शिव का वर भूल गया और अपने ही सिर पर हाथ रख कर भस्म हो गया। शिव खोड़ी की गुफा में शिव के साथ पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी की पिण्डियों के दर्शन होते हैं। यह स्वयंभू मानी जाती है। इनके साथ यहां सात ऋषियों, पाण्डवों और राम-सीता की भी पिण्डियां है। पिण्डियों पर गुफा में से जल की बूंदे गिरने से प्राकृतिक अभिषेक होता है। शिव द्वारा बनाई गई यह गुफा बहुत गहरी है, जिसका कोई अंतिम सिरा दिखाई नहीं देता। एक स्थान पर यह दो भागों में बंट जाती है, माना जाता है कि इनमें से एक रास्ता अमरनाथ गुफा में निकलता है। शिव खोड़ी गुफा पहुंच मार्ग जम्मू और कटरा से है। इन स्थानों से रनसू क्रमश: १४० और ८० किमी दूर है। रनसू से शिवखोड़ी गुफा जाने के लिए लगभग ३-४ किमी की चढ़ाई है। जो सीधे गुफा के पास ही समाप्त होती है। भगवान शिव की पूजा करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है। ऐसा पुराणों में वर्णित है।
शिवमहापुराण में विभिन्न रसों से शिव की पूजा का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है, जिससे साधक को कई रोगों से छुटकार मिल जाता है वहीं मन चाहे फल की प्राप्ति भी होती है। यह इस प्रकार है-
ज्वर(बुखार) से पीडि़त होने पर भगवान शिव को जलधारा चढ़ाने से शीघ्रताशीघ्र लाभ मिलता है। सुख व संतान की वृद्धि के लिए भी जलधारा द्वारा शिव की पूजा उत्तम बताई गई है। उत्तम भस्म धारण कर दिव्य द्रव्यों से शिव की पूजा करने तथा सहस्त्रनाम मंत्रों से घी की धारा चढ़ाने से वंश की वृद्धि होती है। यदि दस हजार मंत्रों से शिव की पूजा की जाए तो प्रमेह रोग समाप्त हो जाता है। नपुंसक व्यक्ति अगर घी से शिव की पूजा करे व ब्राह्मणों को भोजन कराए तथा प्राजापत्य व्रत करे तो उसकी समस्या का निदान हो जाता है।
बुद्धि जड़ हो जाने पर शर्करामिश्रित दूध चढ़ाने से साधक बृहस्पति के समान बुद्धिमान हो जाता है। यदि किसी कार्य में मन न लगे तो भी शिव को दूध चढ़ाना चाहिए। सुगंधित तेल से शिव की पूजा करने पर भोगों में वृद्धि होती है। भगवान शिव पर ईख(गन्ना) के रस की धारा चढ़ाई जाए तो सभी आनन्दों की प्राप्ति होती है। शिव को गंगाजल चढ़ाने से भोग व मोक्ष दोनों की प्राप्ति होती है।
मधु(शहद) की धारा शिव पर चढ़ाने से राजयक्ष्मा रोग दूर हो जाता है।यह सभी रसों की धाराएं मृत्युंजय मंत्र से चढ़ानी चाहिए, उसमें भी उक्त मंत्र का दस हजार जप करना चाहिए तथा ग्यारह ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। तभी मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।
भगवान शंकर को रुद्राक्ष अतिप्रिय है। भगवान शंकर के उपासक इन्हें माला के रूप में पहनते हैं। रुद्राक्ष के 14 प्रकार हैं तथा सभी का अलग-अलग महत्व है। रुद्राक्ष के संदर्भ में शिवमहापुराण के विद्येश्वरसंहिता में वर्णन मिलता है।
उसके अनुसार एक मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है। वह भोग और मोक्ष प्रदान करता है। जहां इस रूद्राक्ष की पूजा होता है वहां से लक्ष्मी दूर नहीं जाती। दो मुख वाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। यह संपूर्ण कामनाओं और मनोवांछित फल देने वाला है। तीन मुख वाला रुद्राक्ष सदा साक्षात साधन का फल देने वाला है उसके प्रभाव से सारी विद्याएं प्रतिष्ठित होती हैं।
उसके अनुसार एक मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात शिव का स्वरूप है। वह भोग और मोक्ष प्रदान करता है। जहां इस रूद्राक्ष की पूजा होता है वहां से लक्ष्मी दूर नहीं जाती। दो मुख वाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है। यह संपूर्ण कामनाओं और मनोवांछित फल देने वाला है। तीन मुख वाला रुद्राक्ष सदा साक्षात साधन का फल देने वाला है उसके प्रभाव से सारी विद्याएं प्रतिष्ठित होती हैं।
चार मुख वाला रुद्राक्ष ब्रह्मा का स्वरूप है। उसके दर्शन तथा स्पर्श से धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होती है। पांच मुख वाला रुद्राक्ष कालाग्निरुद्ररूप है। वह सब कुछ करने में समर्थ है। सबको मुक्ति देने वाला तथा संपूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करने वाला है। छ: मुख वाला रुद्राक्ष कार्तिकेय का स्वरूप है। इसे धारण करने वाला ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो जाता है।
भगवान शंकर की उपासना में रुद्राक्ष का अत्यन्त महत्व है। रुद्राक्ष शब्द की शास्त्रीय विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी उत्पत्ति महादेव जी के अश्रुओं से हुई है-
रुद्रस्य अक्षि रुद्राक्ष:, अक्ष्युपलक्षितम्अश्रु, तज्जन्य: वृक्ष:।
शिवपुराणकी विद्येश्वर संहिता तथा श्रीमद्देवी भागवत में इस संदर्भ में कथाएं मिलती हैं। उनका सारांश यह है कि अनेक वर्षो की समाधि के बाद जब सदाशिव ने अपने नेत्र खोले, तब उनके नेत्रों से कुछ आँसू पृथ्वी पर गिरे। उन्हीं अश्रु बिन्दुओं से रुद्राक्ष के महान वृक्ष उत्पन्न हुए।
रुद्राक्ष धारण करने से तन-मन में पवित्रता का संचार होता है। रुद्राक्ष पापों के बडे से बडे समूह को भी भेद देते हैं। चार वर्णो के अनुरूप ये भी श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण वर्ण के होते हैं। ऋषियों का निर्देश है कि मनुष्य को अपने वर्ण के अनुसार रुद्राक्ष धारण करना चाहिए। भोग और मोक्ष, दोनों की कामना रखने वाले लोगों को रुद्राक्ष की माला अथवा मनका जरूर पहिनना चाहिए। विशेषकर शैवोंके लिये तो रुद्राक्ष को धारण करना अनिवार्य ही है।
जो रुद्राक्ष आँवले के फल के बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका नाश करने में समर्थ होता है। जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह छोटा होने पर भी उत्तम फल देने वाला व सुख-सौभाग्य की वृद्धि करने वाला होता है। गुन्जाफालके समान बहुत छोटा रुद्राक्ष सभी मनोरथों को पूर्ण करता है। रुद्राक्ष का आकार जैसे-जैसे छोटा होता जाता है, वैसे-वैसे उसकी शक्ति उत्तरोत्तर बढती जाती है। विद्वानों ने भी बडे रुद्राक्ष से छोटा रुद्राक्ष कई गुना अधिक फलदायी बताया है किन्तु सभी रुद्राक्ष नि:संदेह सर्वपापनाशक तथा शिव-शक्ति को प्रसन्न करने वाले होते हैं। सुंदर, सुडौल, चिकने, मजबूत, अखण्डित रुद्राक्ष ही धारण करने हेतु उपयुक्त माने गए हैं। जिसे कीडों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्तहो तथा जो पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकार के रुद्राक्षों को दोषयुक्त जानकर त्याग देना ही उचित है। जिस रुद्राक्ष में अपने-आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही उत्तम होता है। जिसमें प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह रुद्राक्ष कम गुणवान माना जाता है।
रुद्राक्ष दो जाति के होते हैं- रुद्राक्ष एवं भद्राक्ष। रुद्राक्ष के मध्य में भद्राक्षधारण करना महान फलदायक होता है- रुद्राक्षाणांतुभद्राक्ष:स्यान्महाफलम्।शास्त्रों में एक से चौदहमुखी तक रुद्राक्षों का वर्णन मिलता है। इनमें एकमुखी रुद्राक्ष सर्वाधिक दुर्लभ एवं सर्वश्रेष्ठ है।
एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिव का स्वरूप होने से परब्रह्म का प्रतीक माना गया है। इसका प्राय: अर्द्धचन्द्राकार रूप ही दिखाई देता है। एकदम गोल एकमुखी रुद्राक्ष लगभग अप्राप्य ही है। एकमुखी रुद्राक्ष धारण करने से ब्रह्महत्या के समान महापात कभी नष्ट हो जाते हैं। समस्त कामनाएं पूर्ण होती हैं तथा जीवन में कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता है। भोग के साथ मोक्ष प्रदान करने में समर्थ एकमुखी रुद्राक्ष भगवान शंकर की परम कृपा से ही मिलता है।
दोमुखी रुद्राक्ष को साक्षात् अर्द्धनारीश्वर ही मानें। इसे धारण करने वाला भगवान भोलेनाथ के साथ माता पार्वती की अनुकम्पा का भागी होता है। इसे पहिनने से दाम्पत्य जीवन में मधुरता आती है तथा पति-पत्नी का विवाद शांत हो जाता है। दोमुखी रुद्राक्ष घर-गृहस्थी का सम्पूर्ण सुख प्रदान करता है।
तीन-मुखी रुद्राक्ष अग्नि का स्वरूप होने से ज्ञान का प्रकाश देता है। इसे धारण करने से बुद्धि का विकास होता है, एकाग्रता और स्मरण-शक्ति बढती है। विद्यार्थियों के लिये यह अत्यन्त उपयोगी है।
चार-मुखी रुद्राक्ष चतुर्मुख ब्रह्माजीका प्रतिरूप होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थो को देने वाला है। नि:संतान व्यक्ति यदि इसे धारण करेंगे तो संतति-प्रतिबन्धक दुर्योगका शमन होगा। कुछ विद्वान चतुर्मुखी रुद्राक्ष को गणेश जी का प्रतिरूप मानते हैं।
पाँचमुखी रुद्राक्ष पंचदेवों-शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य और विष्णु की शक्तियों से सम्पन्न माना गया है। कुछ ग्रन्थों में पंचमुखी रुद्राक्ष के स्वामी कालाग्नि रुद्र बताए गए हैं। सामान्यत: पाँच मुख वाला रुद्राक्ष ही उपलब्ध होता है। संसार में ज्यादातर लोगों के पास पाँचमुखी रुद्राक्ष ही हैं।
इसकी माला पर पंचाक्षर मंत्र (नम:शिवाय) जपने से मनोवांछित फल प्राप्त होता है।
छह मुखी रुद्राक्ष षण्मुखी कार्तिकेय का स्वरूप होने से शत्रुनाशकसिद्ध हुआ है। इसे धारण करने से आरोग्यता,श्री एवं शक्ति प्राप्त होती है। जिस बालक को जन्मकुण्डली के अनुसार बाल्यकाल में किसी अरिष्ट का खतरा हो, उसे छह मुखी रुद्राक्ष सविधि पहिनाने से उसकी रक्षा अवश्य होगी।
सातमुखी रुद्राक्ष कामदेव का स्वरूप होने से सौंदर्यवर्धकहै। इसे धारण करने से व्यक्तित्व आकर्षक और सम्मोहक बनता है। कुछ विद्वान सप्तमातृकाओंकी सातमुखीरुद्राक्ष की स्वामिनी मानते हैं। इसको पहिनने से दरिद्रता नष्ट होती है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है।सात मुख वाला रुद्राक्ष अनंगस्वरूप और अनंग नाम से प्रसिद्ध है। इसे धारण करने वाला दरिद्र भी राजा बन जाता है।
आठमुखीरुद्राक्ष अष्टभैरव-स्वरूपहोने से जीवन का रक्षक माना गया है। इसे विधिपूर्वक धारण करने से अभिचार कर्मो अर्थात् तान्त्रिक प्रयोगों (जादू-टोने) का प्रभाव समाप्त हो जाता है। धारक पूर्णायु भोगकर सद्गति प्राप्त करता है।आठ मुख वाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरवस्वरूप है। इसे धारण करने वाला मनुष्य पूर्णायु होता है।
नौमुखीरुद्राक्ष नवदुर्गा का प्रतीक होने से असीम शक्तिसम्पन्न है। इसे अपनी भुजा में धारण करने से जगदम्बा का अनुग्रह अवश्य प्राप्त होता है। शाक्तों(देवी के आराधकों)के लिये नौमुखीरुद्राक्ष भगवती का वरदान ही है। इसे पहिनने वाला नवग्रहों की पीडा से सुरक्षित रहता है।नौ मुख वाले रुद्राक्ष को भैरव तथा कपिल-मुनि का प्रतीक माना गया है।
दसमुखीरुद्राक्ष साक्षात् जनार्दन श्रीहरिका स्वरूप होने से समस्त इच्छाओं को पूरा करता है। इसे धारण करने से अकाल मृत्यु का भय दूर होता है तथा कष्टों से मुक्ति मिलती है।दस मुख वाला रुद्राक्ष भगवान विष्णु का रूप है। इसे धारण करने वाले मनुष्य की संपूर्ण कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।
ग्यारहमुखीरुद्राक्ष एकादश रुद्र- स्वरूप होने से तेजस्विता प्रदान करता है। इसे धारण करने वाला कभी कहीं पराजित नहीं होता है।ग्यारह मुखवाला रुद्राक्ष रुद्ररूप है इसे धारण करने वाला सर्वत्र विजयी होता है।
बारहमुखीरुद्राक्ष द्वादश आदित्य- स्वरूप होने से धारक व्यक्ति को प्रभावशाली बना देता है। इसे धारण करने से सात जन्मों से चला आ रहा दुर्भाग्य भी दूर हो जाता है और धारक का निश्चय ही भाग्योदय होता है।बारह मुखवाले रुद्राक्ष को धारण करने पर मानो मस्तक पर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं।
तेरहमुखीरुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप होने से अभीष्ट को पूर्ण करने वाला, सुख-सौभाग्यदायक तथा सब प्रकार से कल्याणकारी है। कुछ साधक तेरहमुखीरुद्राक्ष का अधिष्ठाता कामदेव को मानते हैं।तेरह मुख वाला रुद्राक्ष विश्वदेवों का रूप है। इसे धारण कर मनुष्य सौभाग्य और मंगल लाभ करता है।
चौदहमुखीरुद्राक्ष मृत्युंजय का स्वरूप होने से सर्वरोगनिवारकसिद्ध हुआ है। इसको धारण करने से असाध्य रोग भी शान्त हो जाता है। जन्म-जन्मान्तर के पापों का शमन होता है।चौदह मुख वाला रुद्राक्ष परम शिवरूप है। इसे धारण करने पर समस्त पापों का नाश हो जाता है
एक से चौदहमुखीरुद्राक्षों को धारण करने के मंत्र क्रमश:इस प्रकार हैं-
1.ॐह्रींनम:, 2.ॐनम:, 3.ॐक्लींनम:, 4.ॐह्रींनम:, 5.ॐह्रींनम:, 6.ॐ ह्रींहुं नम:, 7.ॐहुं नम:, 8.ॐहुं नम:, 9.ॐह्रींहुं नम:, 10.ॐह्रींनम:, 11.ॐह्रींहुं नम:, 12.ॐक्रौंक्षौंरौंनम:, 13.ॐह्रींनम:, 14.ॐनम:।
निर्दिष्ट मंत्र से अभिमंत्रित किए बिना रुद्राक्ष धारण करने पर उसका शास्त्रोक्त फल प्राप्त नहीं होता है और दोष भी लगता है। रुद्राक्ष धारण करने पर मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहजन,लिसोडा आदि पदार्थो का परित्याग कर देना चाहिए। इन निषिद्ध वस्तुओं के सेवन का रुद्राक्ष-जाबालोपनिषद् में सर्वथा निषेध किया गया है। रुद्राक्ष वस्तुत:महारुद्रका अंश होने से परम पवित्र एवं पापों का नाशक है। इसके दिव्य प्रभाव से जीव शिवत्व प्राप्त करता है।
हिंदू धर्म में सप्ताह के सातों दिन में अलग-अलग देवताओं के पूजन का विधान बताया गया है जिनसे मनचाहे फल की प्राप्ति संभव है। शिवमहापुराण में इस संदर्भ में विस्तृत वर्णन मिलता है। उसके अनुसार-
रविवार को सूर्य की पूजा करके ब्राह्मणों को भोजन कराएं। ऐसा करने से समस्त प्रकार के शारीरिक रोगों से मुक्ति मिलती है।
सम्पत्ति प्राप्ति के लिए सोमवार को लक्ष्मी की पूजा करें तथा ब्राह्मणों को सपत्नीक घी से पका हुआ भोजन कराएं।
मंगलवार को रोगों की शांति के लिए काली मां की पूजा करें तथा उड़द, मूंग एवं अरहर की दाल आदि अन्नों से युक्त भोजन ब्राह्मण को कराएं।
बुधवार को दही युक्त अन्न से भगवान विष्णु का पूजन करें। ऐसा करने से पुत्र सुख मिलता है।
जो दीर्घायु होने की इच्छा रखता है वह गुरुवार को वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घी मिश्रित खीर से देवताओं का पूजन करें।
समस्त प्रकार के भोगों की प्राप्ति के लिए शुक्रवार को एकाग्रचित्त होकर देवताओं का पूजन करें तथा यथासंभव ब्राह्मणों को अन्न दे।
शनिवार अकाल मृत्यु का निवारण करने वाला है। इस दिन भगवान रुद्र की पूजा करें तथा तिल से होम से, दान से देवताओं को संतुष्ट करके ब्राह्मणों को तिलमिश्रित भोजन कराएं।
शिवमहापुराण में उल्लेख है कि इस प्रकार नित्य विभिन्न देवताओं का पूजन करने से शिव ही उन देवताओं को रूप में पूजित होते हैं तथा मनोवांछित फल प्रदान करते हैं।