Monday, December 30, 2013

शरीर के चक्रों को जाग्रत कैसे करे?

AN ARTICLE SELECTED FROM WEB DUNIA, INDORE - अद्भुत आलेख


1. मूलाधार चक्र

यह शरीर का पहला चक्र है। गुदा और लिंग के बीच चार पंखुरियों वाला यह 'आधार चक्र' है। 99.9% 

लोगों की चेतना इसी चक्र पर अटकी रहती है और वे इसी चक्र में रहकर मर जाते हैं। जिनके जीवन में भोग, संभोग और निद्रा की प्रधानता है उनकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास एकत्रित रहती है।

मंत्र : लं

चक्र जगाने की विधि : मनुष्य तब तक पशुवत है, जब तक कि वह इस चक्र में जी रहा है इसीलिए 
भोग, निद्रा और संभोग पर संयम रखते हुए इस चक्र पर लगातार ध्‍यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने
लगता है। इसको जाग्रत करने का दूसरा नियम है यम और नियम का पालन करते हुए साक्षी भाव में रहना।

प्रभाव : इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति के भीतर वीरता, निर्भीकता और आनंद का भाव जाग्रत हो जाता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए वीरता, निर्भीकता और जागरूकता का होना जरूरी है। 





2. स्वाधिष्ठान चक्र-

यह वह चक्र है, जो लिंग मूल से चार अंगुल ऊपर स्थित है जिसकी छ: पंखुरियां हैं। अगर आपकी ऊर्जा इस चक्र पर ही एकत्रित है तो आपके जीवन में आमोद-प्रमोद, मनोरंजन, घूमना-फिरना और मौज-मस्ती करने की प्रधानता रहेगी। यह सब करते हुए ही आपका जीवन कब व्यतीत हो जाएगा आपको पता भी नहीं चलेगा और हाथ फिर भी खाली रह जाएंगे।

मंत्र : वं

कैसे जाग्रत करें : जीवन में मनोरंजन जरूरी है, लेकिन मनोरंजन की आदत नहीं। मनोरंजन भी व्यक्ति की चेतना को बेहोशी में धकेलता है। फिल्म सच्ची नहीं होती लेकिन उससे जुड़कर आप जो अनुभव करते हैं वह आपके बेहोश जीवन जीने का प्रमाण है। नाटक और मनोरंजन सच नहीं होते।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने पर क्रूरता, गर्व, आलस्य, प्रमाद, अवज्ञा, अविश्वास आदि दुर्गणों का नाश 

होता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए जरूरी है कि उक्त सारे दुर्गुण समाप्त हो तभी सिद्धियां आपका द्वार खटखटाएंगी।

3. मणिपुर चक्र :

नाभि के मूल में स्थित रक्त वर्ण का यह चक्र शरीर के अंतर्गत मणिपुर नामक तीसरा चक्र है, जो दस 

कमल पंखुरियों से युक्त है। जिस व्यक्ति की चेतना या ऊर्जा यहां एकत्रित है उसे काम करने की धुन-सी
रहती है। ऐसे लोगों को कर्मयोगी कहते हैं। ये लोग दुनिया का हर कार्य करने के लिए तैयार रहते हैं।

मंत्र : रं

कैसे जाग्रत करें : आपके कार्य को सकारात्मक आयाम देने के लिए इस चक्र पर ध्यान लगाएंगे। पेट से श्वास लें।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने से तृष्णा, ईर्ष्या, चुगली, लज्जा, भय, घृणा, मोह आदि कषाय-कल्मष दूर हो 

जाते हैं। यह चक्र मूल रूप से आत्मशक्ति प्रदान करता है। सिद्धियां प्राप्त करने के लिए आत्मवान होना 
जरूरी है। आत्मवान होने के लिए यह अनुभव करना जरूरी है कि आप शरीर नहीं, आत्मा हैं। 
आत्मशक्ति, आत्मबल और आत्मसम्मान के साथ जीवन का कोई भी लक्ष्य दुर्लभ नहीं।



4. अनाहत चक्र- 

हृदय स्थल में स्थित स्वर्णिम वर्ण का द्वादश दल कमल की पंखुड़ियों से युक्त द्वादश स्वर्णाक्षरों से 

सुशोभित चक्र ही अनाहत चक्र है। अगर आपकी ऊर्जा अनाहत में सक्रिय है, तो आप एक सृजनशील
व्यक्ति होंगे। हर क्षण आप कुछ न कुछ नया रचने की सोचते हैं। आप चित्रकार, कवि, कहानीकार, 
इंजीनियर आदि हो सकते हैं।

मंत्र : यं

कैसे जाग्रत करें : हृदय पर संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है। खासकर 

रात्रि को सोने से पूर्व इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह अभ्यास से जाग्रत होने लगता है और सुषुम्ना 
इस चक्र को भेदकर ऊपर गमन करने लगती है।

प्रभाव : इसके सक्रिय होने पर लिप्सा, कपट, हिंसा, कुतर्क, चिंता, मोह, दंभ, अविवेक और अहंकार 

समाप्त हो जाते हैं। इस चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति के भीतर प्रेम और संवेदना का जागरण होता है।
इसके जाग्रत होने पर व्यक्ति के समय ज्ञान स्वत: ही प्रकट होने लगता है।व्यक्ति  अत्यंत आत्मविश्वस्त, सुरक्षित, चारित्रिक रूप से जिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित  व्यक्तित्व बन जाता हैं। ऐसा व्यक्ति अत्यंत हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता प्रेमी एवं सर्वप्रिय बन जाता है।

5. विशुद्ध चक्र-

कंठ में सरस्वती का स्थान है, जहां विशुद्ध चक्र है और जो सोलह पंखुरियों वाला है। सामान्यतौर पर 
यदि आपकी ऊर्जा इस चक्र के आसपास एकत्रित है तो आप अति शक्तिशाली होंगे।

मंत्र : हं

कैसे जाग्रत करें : कंठ में संयम करने और ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : इसके जाग्रत होने कर सोलह कलाओं और सोलह विभूतियों का ज्ञान हो जाता है। इसके जाग्रत 

होने से जहां भूख और प्यास को रोका जा सकता है वहीं मौसम के प्रभाव को भी रोका जा सकता है।
6. आज्ञाचक्र :

भ्रूमध्य (दोनों आंखों के बीच भृकुटी में) में आज्ञा चक्र है। सामान्यतौर पर जिस व्यक्ति की ऊर्जा यहां 
ज्यादा सक्रिय है तो ऐसा व्यक्ति बौद्धिक रूप से संपन्न, संवेदनशील और तेज दिमाग का बन जाता है 
लेकिन वह सब कुछ जानने के बावजूद मौन रहता है। इस बौद्धिक सिद्धि कहते हैं।

मंत्र : ऊं

कैसे जाग्रत करें : भृकुटी के मध्य ध्यान लगाते हुए साक्षी भाव में रहने से यह चक्र जाग्रत होने लगता है।

प्रभाव : यहां अपार शक्तियां और सिद्धियां निवास करती हैं। इस आज्ञा चक्र का जागरण होने से ये सभी 

शक्तियां जाग पड़ती हैं और व्यक्ति एक सिद्धपुरुष बन जाता है।

7. सहस्रार चक्र : 

सहस्रार की स्थिति मस्तिष्क के मध्य भाग में है अर्थात जहां चोटी रखते हैं। यदि व्यक्ति यम, नियम 
का पालन करते हुए यहां तक पहुंच गया है तो वह आनंदमय शरीर में स्थित हो गया है। ऐसे व्यक्ति को 
संसार, संन्यास और सिद्धियों से कोई मतलब नहीं रहता है।

कैसे जाग्रत करें : 


मूलाधार से होते हुए ही सहस्रार तक पहुंचा जा सकता है। लगातार ध्यान करते रहने से यह चक्र जाग्रत 
हो जाता है और व्यक्ति परमहंस के पद को प्राप्त कर लेता है।

प्रभाव : शरीर संरचना में इस स्थान पर अनेक महत्वपूर्ण विद्युतीय और जैवीय विद्युत का संग्रह है। यही मोक्ष का द्वार है।



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Tuesday, December 24, 2013

शरीर की वास्तु -पंच-तत्व शरीर को स्वस्थ बनाए रखते हैं


शरीर की वास्तु -पंच-तत्व शरीर को स्वस्थ बनाए रखते हैं

योगाचार्य सुरक्षित गोस्वामी
अद्भुत आलेख

शरीर पांच तत्वों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश- से मिलकर बना है। ये तत्व शरीर को धारण किए हुए उसे स्वस्थ बनाए रखते हैं। जब इन तत्वों में से किसी एक की शक्ति कम होती है या वह तत्व मलयुक्त हो जाता है, तो उससे अनेक बीमारियां होने लगती हैं। प्रत्येक तत्व अपना-अपना कार्य करता है, जिससे उसका मल भी बनता रहता है। मल का अर्थ है जो शरीर को मलिन कर दे, अर्थात् जिन पदार्थों को शरीर के अंग अंदर से त्याग दें, वही मल है। अंगों द्वारा त्याग देने के बाद भी यदि वह मल शरीर में रुक जाए, तो शरीर दूषित होकर रोगी हो जाता है। इसलिए, स्वस्थ रहने के लिए जरूरी है कि ये सभी मल सही प्रकार से समयानुसार शरीर से बाहर निकलते रहें।

हमारी प्रातः कालीन दिनचर्या इन मलों को बाहर निकालने की एक प्रक्रिया है। दिनचर्या में सुबह सबसे पहले शौच के लिए जाते हैं और मल-मूत्र त्याग करते हैं। मल को पुरीष भी कहा जाता है। यह पृथ्वी तत्व का मल है और मूत्र जल तत्व का मल होता है। मल त्याग करने के पश्चात आसन, प्राणायाम, व्यायाम, टहलना या अन्य शारीरिक कसरतें करते हैं। इनसे वायु तत्व का मल, जैसे कार्बन डाइआक्साइड इत्यादि विषाक्त वायु बाहर निकल जाती है। स्नान करने से शरीर से दूषित गर्मी निकल जाती है, जिससे अग्नि तत्व का मल बाहर निकल जाता है। इसके पश्चात पूजा-पाठ, ध्यान, जप, प्रभु स्मरण, भजन, सत्संग आदि करते हैं, तो आकाश तत्व का मल अर्थात् नकारात्मक विचार मन से बाहर निकल जाते हैं। इस प्रकार सुबह ही अपने पांचों तत्वों के मलों को बाहर निकाल कर हम अपने तन-मन को स्वस्थ रखते हैं। यदि ये पांचों मल सही प्रकार से शरीर से बाहर न निकलें, तो शरीर विषाक्त व मलिन हो जाता है और शरीर में अनेक प्रकार की बीमारियां उत्पन्न होने लगती हैं।

अगर पृथ्वी तत्व का मल-पुरीष-ठीक प्रकार से बाहर न निकले तो कब्ज, अपच, गैस, भूख न लगना, डकारें, मोटापा, बवासीर, रक्तदोष, चर्मरोग, थकान, उदासी, सुस्ती, जोड़ों का दर्द, सिर दर्द, भारीपन, नेत्र ज्योति कम होना, मधुमेह, उच्च रक्तचाप, बालों के रोग, धातु रोग, स्वप्नदोष, नपुंसकता इत्यादि रोग हो सकते हैं। इसी प्रकार जल तत्व का मल अर्थात् मूत्र अगर सही प्रकार से बाहर न निकले, तो शरीर में टॉक्सिन्स बढ़ने लगते हैं और मूत्राशय व किडनी के रोग हो सकते हैं।


स्नान न करने से अग्नि तत्व का मल बाहर नहीं निकल पाता, जिससे शरीर में जलन, पसीने में बदबू, शरीर में भारीपन, रोग प्रतिरोधक शक्ति का कम होना, रोमकूपों व मलमार्गों की सफाई न होने के कारण त्वचा रोग, इंद्रियों के दोष, तरोताजगी का अभाव, भूख न लगना, बल की कमी आदि रोग हो सकते हैं।

यदि आसन, प्राणायाम, व्यायाम, टहलना आदि शारीरिक अभ्यास न किए जाएं, तो वायु तत्व का मल-दूषित वायु-शरीर से बाहर नहीं निकल पाती। इससे श्वास रोग, अस्थमा, हृदय रोग, रक्त विकार, चर्म रोग, किडनी के रोग, कोशिकाओं की क्षतिपूर्ति न होना, स्मरण शक्ति की कमी, आलस्य, उबासी, जोड़ों के दर्द आदि रोग हो जाते हैं।

इसी प्रकार, यदि प्रातः काल पूजा-पाठ, जप, ध्यान, योग, सत्संग आदि के लिए समय न निकाला जाए, तो आकाश तत्व का मल मन में रुक जाता है और नकारात्मक विचारधारा, तनाव, चिंता, चिड़चिड़ापन, डिप्रेशन, उच्च रक्तचाप, उद्विग्नता, क्रोध, अनिद्रा, असंतोष, हिंसा, चंचलता, धैर्य व स्मरण शक्ति की कमी, अभिमान आदि विकार हो जाते हैं।
FROM

Tuesday, November 12, 2013

A critical study of the work "Vaimanika Shastra"

An excellent Article picked up from -

http://www.indiadivine.org/news/science-and-nature/a-critical-study-of-the-work-vaimanika-shastra-r625




SUMMARY – A study of the work “Vymanika Shastra” is presented. First, the historical aspects and authenticity of the work are discussed. Subsequently, the work is critically reviewed in respect of its technical content. It appears that his work cannot be dated earlier than 1904 and contains details which, on the basis of our present knowledge, force us to conclude the non feasibility of heavier‐than-air craft of earlier times. Some peripheral questions concerning dimensions have also been touched upon.
1. Historical Aspects

1.1 ORIGIN

A book titled “Brihad Vimana Shastra” by Shri Bramhamuni Parivrajaka was published in the year 1959 [1]. It contains verses in Sanskrit (describing aircraft) with their Hindi translation.

Recently, another book titled “Vymanika Shastra” by Shri G.R. Josyer has appeared [2], which contains the same Sanskrit verses with their English translation. One notable feature of this English version is that it contains drawings of some crafts too, something not to be found in the Hindi version. Also, the English work by Josyer makes no mention whatsoever of the earlier work in Hindi.

Our main concern in this report will be with the above two works.

These books contain verses which, according to their texts, are supposed to form only part (about a fortieth) of “Yantra Sarvaswa” by sage Bharadwaja, which is devoted to a summary of the work on vimana vigyana by a number of other sages and is said to be for the benefit of all mankind.
For more reading, go to .......http://www.indiadivine.org/news/science-and-nature/a-critical-study-of-the-work-vaimanika-shastra-r625

Wednesday, November 6, 2013

आधुनिक समय वास्तु शास्त्र के पुर्नजागरण का समय

आचार्य अनुज जैन

वास्तु जो पंच तत्वों का भारतीय वैदिक विज्ञान है विभिन्न नियम, शोध एवं वस्तु की गुणवत्ता पर आधारित होता है। मानव शरीर,भूमि एवं भवन निर्माण से संबधित विज्ञान है जिसकी नींव हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने रखी थी। उनकी वर्षों की निरंतर तपस्या,शोध एव प्रयोगों का नतीजा ही है कि हमारे मंदिर, पुरातन महल आदि जो वास्तु नियमो पर बने ते। समय के बदलते प्रभाव के बाद आज भी अपनी महत्ता बनाए हुए हैं। आधुनिक समय वास्तु शास्त्र के पुर्नजागरण का समय है। तंत्र आगम, मानसार प्रभावमंजरी,अपराजित पुच्छ, विश्वकर्मा वास्तु शास्त्र समरागण सूत्रधार, राज वल्लभ-मणडनम, मयमतम आदि वास्तु के ग्रंथ आज भी वैज्ञानिकों के लिए आश्चर्य. का विषय बने हुए हैं। वे यह सोच कर ही हैरान है कि लाखों वर्ष पूर्व किन उपकरण,ज्ञान शोध के उपरातं इतने सटीक नियम प्रतिपादित किए गए हैं जबकि वे तो अभी भी प्रारंभिक अवस्था में ही है। भारत में तो वास्तुकारों को ऋषियों का सम्मान प्राप्त है।

वास्तु यानी भारतीय भवन निर्माण की कला दो उर्जा स्रोत पर आधारित है सूर्य से प्राप्त उर्जा और पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति। इन दोनों ऊर्जा रेखाओं के चयन के पीछे उद्देशय बहुत ही स्पष्ट था। सौर उर्जा और गुरुत्वाकर्षण के प्राकृतिक सामंजस्य प्रयोग और परिवर्तन के द्वारा सही दिशाओं का पता लगाना ताकि ऊर्जा के सही बहाव की जानकारी प्राप्त हो सके। भू ऊर्जा जो उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है और प्राणिक ऊर्जा जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है उसका उपयोग भवन में किस प्रकार हो, कैसे शरीर, कर्म और वातावरण का संतुलन बनाया जाए इसकी जानकारी वास्तु शास्त्र में हजारों वर्षों से हमारे पास है। वास्तु शास्तर इस बात पर आधारित है कि प्रकृति में पांच महाभूतों ( पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु) आदि में ऐसा संतुलन कायम किया जाए जिससे बनाए गए भवन में सुख समृद्धि हो, और व्यक्ति अपने जीवन उद्देश्य को प्राप्त करे।

वास्तु के मूलभूत सिद्दांतों में सर्वप्रथम आता है भूमि परिक्षण। भूमि परिक्षण के जो विभिन्न सूत्र वास्तु शास्त्रों में बताए गए हैं वे आज भी वैज्ञानिक कसौटियों पर खरे उतरते हैं वास्तु में प्रतिपादित भूमि की गंध, स्वाद, रंग, स्पर्श आदि की परिक्षण विधियां वैज्ञानिक विश्लेषणों को मात भी दे रहा है । भूमि पर मकान बनाने से पूर्व, चुनाव की अगली विधि होती है भूमि का आकार। वर्गाकार आयातकार, वृत्ताकार, त्रिकोणकार,अण्डाकार, सिंहमुखी, गोमी आदि, शुभ अशुभ इस प्रकार की भूमि के चयन का नियम वास्तु शास्त्र में प्रतिपादित है जो वहां रहने वाले व्यक्ति पर शुभ- अशुभ असर डालते हैं। आज विज्ञान ने भी आकार के महत्व को समझ लिया है और बड़े-बड़े आकार परियोजनाएं ही बनाए जा रहे हैं।

भूमि का चारो दिशाओ की ओर से ऊंचा नीचा होना भी वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार भवन और भवन स्वामी पर व्यापक प्रभाव डालता है। आज फ्रांस जर्मनी, अमेरिका में बायो बायलॉजी के नियम भी इन सूत्रों को अपना रहे हैं उनके द्वारा 25 सूत्री नियमावली में भूमि के स्तर को सौर ऊर्जा के परिवर्तन के साथ जोडा़ जा रहा है ताकि सौर ऊर्जा और गुरुत्वाकर्षण का संपूर्ण उपयोग किया जा सके।

वास्तु शास्त्र में दिशाओं का बहुत ही बड़ा महत्व होता है वास्तु शास्त्र के अनुसार आठ दिशाएं न केवल पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति और अदृश्य उर्जा रेखाओं का प्रतिनिधित्व करती है बल्कि पंच तत्वों का केन्द्र भी है जैसे उत्तर दिशा में पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव से चुंबकीय शक्ति निकलती है। अतः भवन के इस चुंबकीय क्षेत्र में खुला बरामदा रखने, भूमि एवं भवन का स्तर नीचा रखना बताया गया है। भू वैज्ञानिक भी इस सिद्धांत पर सहमति जताते है कि इस प्रकार की संरचना से भूमि और भवन के वाष्प स्तर को नियंत्रित किया जा सकता है।

वास्तु शास्त्र में भवन की बनावट,भव्यता, आकार और उपयोग के अनुसार 32 प्रकार के वास्तु पद मण्डल का विधान है। इस प्रकार हम सरलता से ऊर्जा के केन्द्र माप सकते हैं जिन्हे हम ब्रहम स्थान, मर्मस्थान, अथि मर्मस्थान पर देख सकते हैं जिस प्रकार मानव शरीर में ऊर्जा के सात स्रोत होते हैं जिन्हें हम चक्र कहते हैं उसी प्रकार भूमि और भवन में भी ऊर्जा के सातों चक्र होते हैं जिन्हे हम तीन विभागों में विभाजित कर सकते हैं- उत्तर-पूर्व,मध्यस्थान एवं दक्षिण-पश्चिम। उत्तर-पूर्व में आकाशीय ऊर्जा विद्यमान रहती है,  मध्य भाग में ब्रहमाणीय उर्जा विराजमान रहती है और दक्षिण-पश्चिम में पृथ्वी ऊर्जा का वास होता है। वास्तु शास्त्र का पूरा आधार इन्ही तीनों ऊर्जा रेखाओं पर रखा हुआ है।

वास्तु प्राचीन समय का भवन निर्माण का विज्ञान है जो आज भी अपने तर्क शोध और सत्यता के बल पर अपना महत्व बनाए हुए है आधुनिक जीवन शैली प्रदूषण, प्रतिस्पर्धा और गलत रहन सहन के कराण हमें या तो स्वयं को बदलना होगा या वैज्ञानिक दृष्टि से वैदिक सूत्रों को लागू करने की शैली विकसित करनी होगी। जब हम ज्ञान और विज्ञान को पुनः मिलाएंगे तो हम एक बार फिर सुख शांति समृद्धि का जीवन जी पाएंगे।





Tuesday, October 22, 2013

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Friday, October 11, 2013

रावण को बैठा देखकर हनुमानजी भी मोहित हो गए थे


An article from Dainik Bhaskar - ( Dainik Bhaskar se sabhaar )



श्रीरामचरित मानस में कुल 7 कांड बताए गए हैं। इसमें पहला है बालकांडदूसरा है अयोध्या कांडफिर अरण्य कांडइसके बाद किष्किंधाकांडसुंदरकांडलंका कांड और अंत में है उत्तरकांड।
रावण की मां का नाम कैकसी था और पिता ऋषि विशर्वा थे। कैकसी दैत्य कन्या थीं। रावण के भाई विभिषणकुंभकर्ण और बहन सूर्पणखा के साथ ही देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर देव भी रावण के भाई हैं।

एक बार रावण ने अपनी शक्ति के मद में शिवजी के कैलाश पर्वत को ही उठा लिया था। उस समय भोलेनाथ ने 
मात्र अपने पैर के अंगूठे से ही कैलाश पर्वत का भार बढ़ा दिया और रावण उसे अधिक समय तक उठा नहीं सका। इस दौरान रावण का हाथ पर्वत के नीचे फंस गया। बहुत प्रयत्न के बाद भी रावण अपना हाथ वहां से नहीं निकाल सका। तब रावण ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए उसी समय शिव तांडव स्रोत रच दिया। शिवजी इस स्रोत से बहुत प्रसन्न हो गए।

लंका में प्रवेश करते हुए हनुमानजी ने लंका की भव्यता और सुंदरता देखीजो कि आश्चर्यचकित करने वाली थी। रात्रि के समय पर बजरंग बली रावण के अंत:पुर में गए तो वहां रावण और रावण की रानियों का सौंदर्य देखते ही बनता था।
लंका में सीता को खोजते हुए हनुमानजी ने पूरी लंका का भ्रमण कर लिया था। अंत में वे अशोक वाटिका पहुंचे जहां सीता को देखकर वे प्रसन्न हो गए। वाटिका में सीता से वार्तालाप करने के बाद हनुमानजी ने रावण की एक वाटिका उजाड़ दी।
रावण को सूचना प्राप्त हुई की एक वानर उनकी वाटिका उजाड़ दी है। जिसके बाद लंकेश ने कई असूर हनुमानजी को पकडऩे के लिए भेजें। सभी असूरों को बजरंग बली ने हरा दिया। अंत में इंद्रजीत हनुमानजी को पकडऩे आया। इंद्रजीत ने दिव्यास्त्र की मदद से हनुमानजी को बंदी बना दिया। बंदी बनाए जाने के बाद जब हनुमानजी लंका के दरबार में पहुंचे तो वे हतप्रभ हो गए।

रावण का दरबार भव्य और सुंदर थाजहां रावण को बैठा देखकर हनुमानजी भी मोहित हो गए थे। रामायण में लिखा है हनुमानजी ने रावण के वैभव को देखते हुए कहा था कि...

अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता।।

इस श्लोक का अर्थ यह है कि - रावण रूप-रंगसौंदर्यधैर्यकांति तथा सर्वलक्षणों से युक्त है। यदि रावण में अधर्म अधिक बलवान  होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन सकता था।
बलशाली दशानन ने अपने तप से ब्रह्माशिव समेत   अनेक देवों को प्रसन्न किया था। वह पराक्रमी  और ज्ञानी भी था। परंतु प्रकांड विद्वान लंकापति के सारे गुण अहंकार रूपी बुराई में जाकर गुम हो गए।
रावण द्वारा सीता हरण की घटना के पीछे मुख्य रूप से शूर्पणखा का हाथ माना जाता है। बहन शूर्पणखा के प्रति रावण के मन में अगाध प्रेम था।

लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक  काटी होती और शूर्पणखा ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए रावण को  उकसाया होतातो शायद ही सीता हरण का ख्याल रावण के मन में  आता।
रावण बहुत विद्वानचारों वेदों का ज्ञाता और ज्योतिष विद्या में पारंगत था। उसके जैसी तीक्ष्ण बुद्धि वाला कोई भी प्राणी पृथ्वी पर नहीं हुआ। इंसान के मस्तिष्क में बुद्धि और ज्ञान का भंडार होता हैजिसके बल पर वह जो चाहे हासिल कर सकता है। रावण के तो दस सिर यानी दस मस्तिष्क थे। कहते हैंरावण की विद्वता से प्रभावित होकर भगवान शंकर ने अपने घर की वास्तुशांति हेतु आचार्य पंडित के रूप में दशानन को निमंत्रण दिया था।

रावण भगवान शंकर का उपासक था। तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस के अनुसारसेतु निर्माण के समय रामेश्वरम में शिवलिंग की स्थापना की गईतो उसके पूजन के लिए किसी विद्वान की खोज शुरू हुई। उस वक्त सबसे योग्य विद्वान रावण ही थाइसलिए उससे शिवलिंग पूजन का आग्रह किया गया और शिवभक्त रावण ने शत्रुओं के आमंत्रण को स्वीकारा था। 

रावण महातपस्वी था। अपने तप के बल पर ही उसने सभी देवों और ग्रहों को अपने पक्ष में कर लिया था। कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने रावण को अमरता और विद्वता का वरदान दिया था।
रावण को रसायन शास्त्र का ज्ञान था। उसे कई अचूक शक्तियां हासिल थींजिनके बल पर उसने अनेक चमत्कारिक कार्य सम्पन्न किए। अग्निबाणब्रह्मास्त्र आदि इनमें गिने जा सकते हैं।

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